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अव॑ स्म॒ यस्य॒ वेष॑णे॒ स्वेदं॑ प॒थिषु॒ जुह्व॑ति। अ॒भीमह॒ स्वजे॑न्यं॒ भूमा॑ पृ॒ष्ठेव॑ रुरुहुः ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ava sma yasya veṣaṇe svedam pathiṣu juhvati | abhīm aha svajenyam bhūmā pṛṣṭheva ruruhuḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अव॑। स्म॒। यस्य॑। वेष॑णे। स्वेद॑म्। प॒थिषु॑। जुह्व॑ति। अ॒भि। ई॒म्। अह॑। स्वऽजे॑न्यम्। भूम॑। पृ॒ष्ठाऽइ॑व। रु॒रु॒हुः॒ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:7» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:24» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वानों के विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यस्य) जिसके (वेषणे) व्याप्त व्यवहार के निमित्त (पथिषु) मार्गों में वीर (स्वेदम्) जल को (स्म) ही (अव, जुह्वति) बहाते और (भूमा) पृथिवी के (अह) निश्चित (स्वजेन्यम्) अपने से जीतने योग्य स्थान को (पृष्ठेव) पृष्ठ के सदृश (अभि, रुरुहुः) अभिवर्द्धन करते अर्थात् उस पर बढ़ते हैं उसकी खोज करते हैं (ईम्) वैसे ही आप लोग भी करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य मार्ग में व्याप्त व्यवहारों को जान कर कार्यों को सिद्ध करते हैं, वे सुखों को प्राप्त होते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यस्य वेषणे पथिषु वीराः स्वेदं स्माव जुह्वति भूमाह स्वजेन्यं पृष्ठेवाभि रुरुहुस्तस्यान्वेषणं तथा यूयमपि कुरुत ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अव ) (स्म) (यस्य) (वेषणे) व्याप्ते व्यवहारे (स्वेदम्) (पथिषु) (जुह्वति) क्षरन्ति (अभि) (ईम्) (अह) (स्वजेन्यम्) स्वेन जेतुं योग्यम् (भूमा) पृथिव्याः (पृष्ठेव) (रुरुहुः) वर्धन्ते ॥५॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्या मार्गेषु व्याप्तान् व्यवहारान् विज्ञाय कार्य्याणि साध्नुवन्ति ते सौख्यानि प्राप्नुवन्ति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे मार्गातील व्यवहार जाणून कार्य सिद्ध करतात, ती सुख प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥